शहर में दो मित्र घूम रहे थे एक पत्रकार व दूसरा लेखक ... घूमते घूमते अचानक शहर में सड़क पर एक गधा दिख गया, गधे को देखते ही पत्रकार मित्र भौंचक भाव से बोला, भैया आजकल गधे दिखना बंद हो गए हैं अपना सौभाग्य है की आज गधा दिख गया, सच कह रहे हो गधे को असल रूप में देखना निश्चित ही सौभाग्य की बात है क्योंकि आजकल गधे असल रूप में न दिखकर बहरूपिये रूप में ही दिखते हैं ... क्यों मजाक कर रहे हो भैया ! मजाक नहीं कर रहा हूं दोस्त ... आजकल गधों की संख्या बहुतायत हो गई है किन्तु वे भेष बदल बदल कर घूमते हैं इसलिये पहचान में नहीं आ रहे हैं ... वो कैसे भैया ... गधे बोझा ढ़ोने का काम करते थे आज भी कर रहे हैं लेकिन बहरूपिये बनकर ... कुछ समझ नहीं पा रहा हूं की आप क्या कह रहे हैं ! ... अपने सिस्टम में चारों तरफ नजर दौडाओ गधे ही गधे दिख जायेंगे जो किसी न किसी का बोझ ढो रहे हैं ... हुआ दरअसल ये है की सिस्टम के माई-बाप भी गधे ..... पसंद हो गए हैं इसलिये ही उन्होनें सारे घोडों को अस्तबल में बांध दिया है और गधों से काम चला रहे हैं, इसी बहाने वे दुलत्ती व पटकनी खाने से बचे हुए हैं ... जितना मन करता है उतना बोझा लाद देते हैं और गधा उनके इशारे पे इधर-उधर चलते रहता है ... बस भैया बस, समझ गया, और आगे कुछ मत बोलो नहीं तो मुझे भी लगने लगेगा की मैं भी गधा हूं ! ... नहीं अभी तू पूरी तरह बहरूपिया नहीं बन पाया है मेरे साथ घूमना-फिरना बंद कर, जा किसी को अपना आदर्श मान ले, तू भी तर जायेगा ... चल एक काम कर अभी तो तू दूर से ही असल गधे को नमस्कार कर ले शायद कुछ आशीर्वाद मिल जाए और तू किसी बहरूपिये का बोझ ढ़ोने से बच जाए ... वैसे भी अपने सिस्टम में गधा होना ... मतलब बहरूपिया होना गर्व की बात हो गई है, पर खुशनसीबी भी है जो नोटों से भरे बोरे ढो रहे हैं !!!
5 comments:
गधे को असली रुप में देखना सौभाग्य की बात है। काहे की खुशनसीबी नोटों से भरे बोरे ढोना भी गधा पन है ।सही है घोडों को मिलती नहीं घास देखो/गधे खारहे च्यवनप्राश देखो।
अच्छी पोस्ट .अच्छा व्यंग ........जो नोट कमा रहे तो भी ठीक है ...सरकारी तंत्र मे तो काम करनेवाला सदा ही गधा होता है ......नोट वो भी बराबर लेते हैजो केवल मौज कर रहे होते हैं...
बहुत खूब श्याम जी ....
nice one.....
'उदय'जी, अच्छा कटाक्ष किया है आपने। बधाई।
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