Sunday, January 30, 2011

समर !

एक दिन अपने आप को
'समर' में अकेला पाया
बेरोजगारी-गरीबी-रिश्वतखोरी
भुखमरी-भ्रष्टाचारी-कालाबाजारी
समस्याओं से गिरा पाया !

मेरे मन में
भागने का ख्याल आया
भागने की सोचकर
चारों ओर नजर को दौडाया
पर कहीं, रास्ता न नजर आया
किंतु इनकी भूखी-प्यासी
तडफ़ती-बिलखती आंखों को
मैं जरूर भाया !

फ़िर मन में भागने का ख्याल
दोबारा नहीं आया
सिर्फ़ इनसे लडने-जूझने
इन्हें हराकर
'विजेता' बनने का हौसला आया !

समर में, इनके हाथ मजबूत
आंखें भूखी, इरादे बुलंद
और तरह-तरह के हथियारों से
इन्हें युक्त पाया
और सिर्फ़ एक 'कलम' लिये
इनसे लडता-जूझता पाया !

मेरी 'कलम'
और
इन समस्याओं के बीच
समर आज भी जारी है
इन्हें हराकर
'विजेता' बनने का प्रयास जारी है !!

"महात्मा गांधी" जन्म नहीं लेंगे !!

भभक रहे भ्रष्टाचारी शोलों को
ठंडा करने
क्या अब इस धरती पर
"मंगल पाण्डे" जन्म नहीं लेंगे

बेलगाम प्रशासन पर
बम फ़ेंकने
क्या अब इस धरती पर
"भगत सिंह" जन्म नहीं लेंगे

दुष्ट-पापियों से लडने को
एक नई सेना बनाने
क्या अब इस धरती पर
"सुभाष चन्द्र" जन्म नहीं लेंगे

एक नई आजादी के खातिर
सत्याग्रह का अलख जगाने
क्या अब इस धरती पर
"महात्मा गांधी" जन्म नहीं लेंगे ।

सृजन !

शब्दों की भीड में
चुनता हूं
कुछ शब्दों को

आगे-पीछे
ऊपर-नीचे
रख-रखकर
तय करता हूं
भावों को

शब्दों की तरह ही
'भाव' भी होते हैं आतुर
लडने-झगडने को
कभी सुनता हूं
कभी नहीं सुनता

क्यॊं ! क्योंकि करना होता है
सृजन
एक 'रचना' का

शब्द, भाव, मंथन
मंथन से ही
संभव है
सृजन
एक "रचना" का !

'सत्यामृत'

आओ चलें, वहां - जहां
'सत्यामृत' झर रहा है

चलते-चलते न रुकें
बढते-बढते, बढते रहें
हम भी पहुंचे वहां
जहां 'सत्यामृत' झर रहा है

एक बूंद पाकर
हम भी
अजर-अमर हो
"सत्यामृत" बन जाएं

आओ चलें, वहां - जहां
'सत्यामृत' .............।

सत्य !

संत
अंत में है खडा
पास खडे
सब दुष्ट

राजा
असत्य को
कैसे भेदे
दूर खडा है
'सत्य' ।

हम - तुम !

फूल - खुशबू
रंग - गुलाल
जमीं - आसमां
हम - तुम

हंसते - खेलते
खट्टे - मीठे
नौंक - झौंक
तू-तू - मैं-मैं

हार - जीत
गम - खुशी
रास्ते
- मंजिलें
सफ़र - हमसफ़र

चलो -चलें
कदम - कदम
एक - एक
हम - तुम

गिले - शिकबे
तना -तनी
भूल - भुलैय्या
क्यों - क्यों

मीठे - मीठे
सपने - अपने
चलो - चलें
हम - तुम !

मां !

मां - ममता
प्यार - दुलार
लेना - देना
चाह - प्यार

अग्नि - तेज
दुख - पीडा
क्रोध - कष्ट
भष्म - भष्मम

मां - साया
छाया - शीतल
पूजा - प्रार्थना
रक्षा - कवच

शत्रु - राक्षस
कष्ट - निवारण
बुरी - नजर
काला - टीका

मां - शक्ति
कील - काजल
भूत - पिशाच
दूर - निवारण

अग्नि - पवन
रंग - चंदन
फ़ूल - खुशबू
धरा - अंबर

जन्म - जन्मांतर
दुर्गा - काली
लक्ष्मी - सरस्वती
मां - मां !

Saturday, January 29, 2011

वक्त !

आज फ़िर,  
वक्त का ठहराव है
कहीं धूप  
तो कहीं छांव है
दिखते हैं रास्ते  
मंजिल की ओर
हैं तो मंजिलें,  
पर धुंध-सा छाया है

अंतर्द्वंद !

मन में चल रहा
अंतर्द्वंद
मुझे झकझोर रहा है
कभी हार, तो कभी जीत रहा है
ये द्वंद, सचमुच अंतर्द्वंद है
मन और मैं
हार उसकी या मेरी
जीत उसकी या मेरी ... !!

रास्ते !

आज फ़िर रास्ते
दो-राहे से लगते हैं
इधर या उधर
तय करना कठिन
कदम उठें
तो किस ओर
ये उलझनें हैं मन में
हार भी सकता हूं
जीत भी सकता हूं
क्या सचमुच
यही जिंदगी है !!

इम्तिहां !

पता नहीं क्यूं जिंदगी
हर पल इम्तिहां लेती है
कभी अपने तो कभी गैर
झकझोर देते हैं जज्वातों को
मन की उमंगे-तरंगें
लहरों की तरह
कभी इधर तो कभी उधर
न जाने क्यूं कदम मेरे
साथ चलने में ठिठक जाते हैं !!

ख्वाबों की बस्ती !

नई राह, नये हौसले
नये जज्बे, नये कदम
चलो चलें हम
नई सुबह के साथ
उस ओर, जहां है
मेरे ख्वाबों की बस्ती
सच, आतुर हूं मैं
पहुंचने के लिये
अपनी नई मंजिल पर
ख्वाबों के साथ
ख्वाबों की बस्ती में !

फ़रिश्ते !

आज पहली बार
नया चेहरा
साहब
मत पूछो
मां बीमार, भाई थाने में
गरीब हूं, असहाय हूं

मां मर जाये
भाई जेल में सड जाये
मैं अनाथ हो जाऊं
इसलिये यहां खडी हूं
जब कुछ रहेगा ही नहीं
तब इस जिस्म का
क्या अचार डालूंगी ???

बोलो साहब बोलो
क्या दे सकते हो
घंटे, दो घंटे, या पूरी रात
हजार, दो हजार, या दस हजार
पूरे दस हजार
वाह साहब वाह

हाथ जोडती हूं
मेरे साथ चलो
मेरा दर्द मिटा लूं
तब ही तो तुम्हे
खुशियां बांट पाऊंगी

सीधा थाने, मुंशी से
बाहर ला मेरे भाई को
ले पकड
दो की जगह ढाई हजार

भाई बाहर
ले सात हजार
दवाई, राशन
घर ले जा

छोटा भाई
उम्र पंद्रह साल
खडा था
जुंए के अड्डे पे
खैर छोडो
चलो साहब

आप फ़रिश्ते हैं
सर-आंखें
लाजो-हया
तन-मन
रूह-जिगर
खिदमत में
हाजिर हैं !!!

मैं एक लडकी हूं !

मैं जानती हूं
तेरी चाह्त
कि तू बगैर मेरे
जी नही सकता

पर तेरी चाहत
दिल में ज्यादा है
या आंखों में
समझ नहीं पाती

तेरी आंखें चुपके से
जब निहारती हैं
मेरे वक्षों को
तब वक्ष मेरे
खुद - व - खुद
उभर जाते हैं

हां जानती हूं
जब विदा होती हूं
तब तेरी आंखें
कहां होती हैं
तेरी आंखों की मस्ती में
कमर मेरी
न चाह कर भी
हिरणी सी बलख जाती है

हां सब जानती हूं
मैं एक लडकी हूं !

आग का शोला !

है पवित्र मन उसका
दिलों में शंख बजते हैं
तन है रेशमी कोमल
हंसे तो फ़ूल झडते हैं
है हालात से मजबूरखडी बाजार में है वो !
करे तो क्या करे
है हालात से मजबूर !
किया नहीं सौदा
हंसकर कभी तन का
पर है गर्व उसको
कि वो तन बेचती है !

नहीं बेचा कभी मन
किया ईमान का सौदा
रुह कचोटती है
मन को नौंचती है
बदन को आग का
शोला बनाकर बेचती है !

मौन !

क्या मैं मौन नहीं रह सकता
रह सकता हूं, पर क्यों विचलित हूं
हां ये सच है, मौन भी एक अदभुत शक्ति है
पर इस शक्ति को, मैं जानूंगा कैसे
निश्चय ही मौन रहकर
फ़िर क्यों व्याकुल हूं !

क्या कुछ पल भावों को, संवेदनाओं को
एहसासों को, अभिव्यक्तियों को
मौन रहकर महसूस नहीं कर सकता
संभव है पर एक बेचेनी है
मन में उपजे भावों को अभिव्यक्त करने की
पर मैं उन उपज रहे भावों को भी
स्वयं महसूस कर रहा हूं
क्या मैं एक शक्ति को महसूस करने
जानने का प्रयास कर रहा हूं !

शायद हां, मैं आपके अभिव्यक्त भावों को
पढकर, मन में रखकर
मनन कर रहा हूं, और अपनी अभिव्यक्ति से
जो मेरे भीतर है
समझने व समझाने का प्रयास कर रहा हूं
ये सच है मैं आपकी चार पंक्तियों को पढकर
मनन कर रहा हूं
और यह भी चिंतन में है मेरे
कि आप को मेरी अभिव्यक्ति का इंतजार है
आप व्याकुल हो मेरी अभिव्यक्ति के लिये !

मैंने प्रतिक्रिया, क्यों जाहिर नहीं की
मैं क्यों खामोश हो गया हूं
पर मेरे अंदर की खामोशी
एक सन्नाटे की तरह है
जो मुझे झकझोर रही है
उद्धेलित कर रही है, उमड रही है
मेरे अंदर ही अंदर
जिसे आप न देख सकते
और न ही महसूस कर सकते हो
क्यों, क्योंकि वह मेरे अंदर है
मेरे मन में है, मौन है !

बंद ..... धन्य है !

चलो अच्छा रहा
आज भारत बंद था
कुछ लोग
घर से ही नहीं निकले
निकलते तो दो-चार
बेवजह सडक दुर्घटना
में मारे जाते

कुछ लूट के शिकार
होने से बच गए
तो कुछ किडनेप
होते होते रह गए

इससे भी बडी खबर
तो ये है कि
कुछ महिलाएं
छेडछाड, छींटाकशी
से बची रहीं
और कुछेक तो
बलात्कार की शिकार होने से
कम-से-कम एक दिन के लिये
तो बाल बाल बच ही गईं

शुक्र है बुद्धिजीवियों का
जो एक दिन के लिये
तो भलाई का कदम उठाया

बुराई कहीं नजर आई
तो बस सडकों पर
देश के कुछेक कर्णधार
बल प्रदर्शन कर
तोड-फ़ोड, मारा-मारी करते
दुकानें बंद कराते
व गरीवों को सताते दिखे
तो कुछ यह सब होते देखता दिखे

धन्य हैं लोकतंत्र के कर्णधार
जो भारत बंद ... बंद ... बंद
के समर्थन व विरोध में
हो हल्ला कर रहे हैं

रही बात मंहगाई की
वो तो खूब
फ़ल-फ़ूल रही है
दिन-दूनी, रात-चौगनी
सीना तान कर
एक एक कदम
आगे बढ रही है

भारत बंद तो होता आ रहा है
आगे भी होता रहेगा
आज विपक्षी रोटी सेंक रहे हैं
तो कल पक्षियों को भी
रोटी सेंकने का भरपूर मौका मिलेगा
ये लोकतंत्र रूपी भट्टा है यारो
जिस में अंगार हरदम
गरमा गरम मिलेगा
धन्य है ये लोकतंत्र रूपी मायानगरी
धन्य है... धन्य है ... धन्य है।

भारत बंद !

मंहगाई बढी
आंदोलन .... भारत बंद
घोटाला हुआ
आंदोलन .... भारत बंद
भ्रष्टाचार हुआ
आंदोलन .... भारत बंद
असंतोष हुआ
आंदोलन .... भारत बंद

आंदोलन .... भारत बंद
अरे भाई, ये अपना लोकतंत्र है
यहां ये सब होते रहता है
आगे भी होते रहेगा

पर ये आंदोलन ... भारत बंद
चक्काजाम, पुतला दहन
तोड-फ़ोड, आगजनी
कितनी न्यायसंगत है
शून्य, नतीजे सिफ़र
पर क्षति अपार
ऎसा कब तक चलते
व दौडते रहेगा

कोई विकल्प निकालना
ही हितकर होगा
क्या कोई विकल्प है ?
हां बिल्कुल है
जिन महाशयों की बजह से
ये स्थिति - परिस्थिति
निर्मित होती है
क्यों न हम उन्हें मृत मानकर
"दो मिनट" का "मौन" धारण कर लें !

मंहगाई !

मंहगाई, जितनी बढती है
बढने दो, मंहगाई है
अगर मंहगाई नहीं बढेगी
तो फ़िर क्या बढेगा
वैसे इस देश में
बढने - बढाने लायक
भ्रष्टाचार अपराध के अलावा
कुछ दिख भी नहीं रहा

मंहगाई बढने से
फ़ायदा ही फ़ायदा है
खाने-पीने
पहनने-ओढने
आने-जाने
सब के दाम
बढने दो, अच्छा है
बहुत अच्छा है

कम से कम
इसी बहाने
सुविधाओं के अभाव में
गरीब मरने लगेंगे
अच्छा होगा
देश से गरीब गरीबी
दोनो मिट जायेगी

कितना अच्छा
सीधा रास्ता है
गरीबी हटाने का
सरकारें सरकारी पिट्ठू
कितने खुश होंगे
जब गरीबी की
समस्या ही नहीं रहेगी

जब गरीब नहीं रहेगा
तो कम से कम
अमीरों को, बडे अफ़सरों को
देश के कर्णधार नेताओं को
गली-कूचे से गुजरने
नाक-मुंह सिकोडने से
पूरी तरह राहत मिल जायेगी

कितना अच्छा होगा
जब गरीबी मंहगाई को लेकर
कोई चिंतित नहीं रहेगा
जब गरीब नहीं रहेगा
तो मंहगाई का टंटा भी नहीं रहेगा
चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली होगी
मंहगाई घटने-बढने का
टेंशन ही नही रहेगा
साथ ही साथ
भारत बंद .... से भी राहत रहेगी
बढाओ ... और बढाओ मंहगाई !

गर्म-जोशी !

क्या तेरे भीतर
बस इतनी ही गर्म-जोशी है
जो मुझे देखते - देखते
तू हो जाता है स्खलित

क्या अब भी तुझे
है घमंड
मर्द होने का
या कुछ बचा है
डींगें हांकने को

ये तेरा दोष नहीं
मेरा जिश्मानी हुनर है
जो तुझे कर देता है
पल पल में व्याकुल

हां मुझे खबर है
मेरे जिस्म के अंग
हैं कितने मादक
जिसे देखने को
तू रहता है कितना आतुर

पर क्यों
क्या तेरी जिज्ञासा
बस इतनी ही है
जो पल भर में
कर देती है
तुझको
स्खलित

जरा सोच जब तू देखेगा
मुझको
सिर से पैरों तक
निर्वस्त्र ..... तब तेरी आंखें
क्या रह पायेंगी स्थिर
या फ़िर तू मुझे देखते देखते
हो जायेगा फ़िर से स्खलित

क्या यहीं तक, है तेरी मर्दांगी
या फ़िर, अब भी, बचा है कुछ
डींगें हांकने को, दम भरने को
चुप क्यों है, कुछ कह दे
नहीं तो मर्दांगी, तुझे धिक्कारेगी

मत हो व्याकुल, तब भी मैं
तुझे उद्धेलित कर
सवार
कर लूंगी खुद पर
और तुझे पार लगा दूंगी
खुद स्खलित होकर !!

मंजिल की ओर !

एक मन था
जो बेचैन हुआ था
क्यों था
ये पता नहीं था
कब तक रहती
पीड़ा मन में
और कब तक रहता
संशय मन में
कब तक मैं समझाता मन को
और कब तक
मन समझाता मुझको

कब तक रहता सन्नाटा
और कब तक रहती खामोशी
मौन टूट पडा था मेरा
हां कहकर
फिर मौन हुआ था
तब तक मन तो
झूम उठा था
एक नई सुबह
नई भोर हुई थी
नई राह पर चल पडा था
मन आगे
और पीछे मैं था
एक नई मंजिल की ओर !

रण है !

आतंकी दौर है तो क्या
रण है,
नक्सली खौफ़ है तो क्या
रण है,

बारूदी
ढेर है तो क्या
रण है,
पहाडी डगर है तो क्या
रण है,

खडे
रणक्षेत्र में हैं हम
रण है,
दिलों में धडकनें हैं हम
रण है,

खडे
हैं मोर्चे पे हम
रण है,
जुनूं है, जान हैं हम
रण है,

वतन
की आन हैं हम
रण है,
वतन की शान हैं हम
रण है !

शैतान ज्यादा हो गया है !

इंसान अब, इंसान कम,
हैवान ज्यादा हो गया है
हर गली - हर मोड पर,
शैतान बन कर घूमता है

क्या मिला उसको
वो जब तक इंसा था
हैवान जब से बना
तो सरेआम हो गया है

भीख में मिलती नहीं
थीं रोटियां
लूटने निकला तो खूब
मिल रहीं हैं बोटियां

बद हुआ, बदनाम हुआ
और ज्यादा क्या हुआ
था निकम्मा वो बहुत
पर आज तो काम गया है

देखता है जब खुदी को
आँख के आईने में वो
शर्म क्या, शर्मसार वो
खुद के जहन में हो गया है

क्या हुआ इंसान को
जो हैवान ज्यादा हो गया है
इंसान अब, इंसान कम
शैतान ज्यादा हो गया है !

ए वतन मेरे वतन !

वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

सर जमीं से आसमां तक
तुझको है मेरा नमन
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

भूख से, मंहगाई से
जीना हुआ दुश्वार है
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

क्या वतन का हाल है
भ्रष्ट हैं, भ्रष्टाचार है
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

मद है,मदमस्त हैं
खौफ है, दहशत भी है
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

भूख है गरीबी है
सेठ हैं, साहूकार हैं
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

अफसरों की शान है
मंत्रियों का मान है
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

आज गम के साए में
चल रहा मेरा वतन
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन !

शायद ! वो सही हों !!

जीवन में हर क्षण
उतार-चढ़ाव भरे हैं
कभी खुशी-कभी गम
कभी खुद-कभी अपने
इन सब के बीच
जीवन चलता रहता है
पर कभी कभी मन
कुछ नया सोचता है
तय भी करता है
पर चलने की कोशिश
दो कदम चलकर
ठहर जाती है
जाने क्यों !
मन आगे बढ़ने से
रोकता सा लगता है
आज चिंतन करते हुए
मुझे महसूस हुआ
ये मन नहीं करता
मन में बसे अपने हैं
जो छिटकने से रोकते हैं
पकडे रखना चाहते हैं
खुद से, खुद के लिए
शायद ! वो सही हों !!

चलो आजाद करें !

चलो आजाद करें, बढ़ो आजाद करें
भ्रष्टतंत्र के कीड़ों से, लोकतंत्र को आजाद करें

चलो आजाद करें, बढ़ो आजाद करें
भय-दहशत के शूरमाओं से, जनतंत्र को आजाद करें

चलो आजाद करें, बढ़ो आजाद करें
झूठे,फरेबी, मक्कार इंसानों से, देश को आजाद करें

चलो आजाद करें, बढ़ो आजाद करें
अमीरों के चंगुल में फंसे गरीबों को आजाद करें

चलो आजाद करें, बढ़ो आजाद करेंमौकापरस्त जननेताओं से जनता को आजाद करें

चलो आजाद करें, बढ़ो आजाद करेंआधुनिक संस्कृति में फंसे, सु-संस्कारों को आजाद करें

चलो आजाद करें, बढ़ो आजाद करेंभेडियानुमा आँखों से, लोक-लाज को आजाद करें

चलो आजाद करें, बढ़ो आजाद करेंधार्मिक सरहदों में फंसे भाईचारे को आजाद करें !

चलो
आजाद करें, बढ़ो आजाद करें !बोली-भाषा,रंग-रूप,आचार-विचार, से खुद को आजाद करें !

चंद रातें, बेचैनी, सवाल और मैं !

कुछ अजब
कुछ गजब
सन्नाटा सा था
चंद रातें
कभी सोतीं
कभी जागतीं
खुली आँखों से कभी
कभी मूंदकर आँखें
मैं देखता सा था
क्या था
क्यों था
कुछ तो था
जिसने मुझे
बेचैन किया था
थी अजब सी
कुछ बेचैनी
क्या थी
क्यों थी
यह सवाल बन
मेरे जहन में
घूमता सा था
चंद रातें
बेचैनी, सवाल
और मैं !

अंतिम साँसें !

लोकतंत्र
और आजादी
दोनों इस आस में
खड़े थे कि
मीडिया रूपी
अंतिम साँसें
उन्हें संजो लेंगे
बचा लेंगे
पर क्या करें
कब तक चलतीं
अंतिम साँसें
कभी तो उखड़ना था
चलो आज ही सही

अंतिम साँसें
जिन पे आस थी
विश्वास की अंतिम डोर थी
टूट गई डोर
बिखर गई आस
बिक गईं
बिकना ही था
आजादी की
अंतिम साँसों को

खरीददार जो खड़े थे
कुछ बिक रहे थे
कुछ खरीदे जा रहे थे
फिर कौन
रोक सकता था
बिकने से
अंतिम साँसों को
बिक गईं
सचमुच बिक गईं
अंतिम साँसें !

क्या करते
कोई दूजा विकल्प
भी नहीं था
बिकने के सिवाय !!
पर बिकने का
सिलसिला
रुका नहीं
एक के बाद एक
सब बिकते चले गए
सारी की सारी
अंतिम साँसें
बिक चुकी थीं !

शायद अब
आजादी भी
लोकतंत्र की भांति
निढाल हो
देख रही थी
उसे जीवित रखने वाली
अंतिम साँसों को
बिकते हुए !!!

यादें ही तो हैं !

हाँ याद है मुझे
शाम छत पर
टहलना तेरा

और घंटों
चिड़ियों
सा
फुदकना तेरा

और राहों पर
आँखों काभटकना तेरा

हाँ याद है मुझे
वो सब याद है !

राहों में मिलना
और गुमसुम सा
गुजर जाना तेरा

कहना
जुबां से कुछ
पर आँखों से
हाँ करना तेरा

हाँ याद है मुझे
सखियों से लड़ना
मेरे लिए
झगड़ पड़ना तेरा

हाँ याद तो है
वो सर्द भरी सुबह
कंपकंपाना तेरा
मेरी ओर दौड़ना
और ठहर जाना तेरा

और हाँ वो पल
बिदाई के भी
याद हैं मुझे
नजरें चुरा कर
बिदा होना तेरा

हाँ याद तो
और भी
बहुत कुछ है
बस यादें
यादें ही तो हैं
तेरे - मेरे बीच !

रोज की मोहब्बत हैं !!

हमने उससे तो
कुछ कहा ही नहीं,
वो जो रूठा था
बस रूठा था
अब चल के कैसे
हम मना लें उसे,
क्या करें फ़रियाद
और संभालें उसे !

उसका रूठना भी
गजब ढाता है
होते हैं सामने
पर गुमसुम होतें है
उसकी ये अदा भी
जाने क्यूं
मुझको भाती है
खामोशियों में भी
मोहब्बत झलक जाती है !

अजब होती हैं
रश्में मोहब्बत की
बजह भी हो
बे-वजह रूठ जाते हैं
रूठते भी हैं तो
बहुत इतराते हैं
हमको मालूम है
वो बे-वजह ही
रूठकर बैठे हैं
ये आज की बात नहीं
रोज की मोहब्बत हैं !!

गरीबी !

आज गरीबी को
दाने दाने के लिए
भटकते देखा है !

धूप रही
बरसात रही
पर गरीब को
पीठ पे बोझा
ढोते देखा है !

आज गरीबी को
खुद की हालत पे
गुमसुम गुमसुम
रोते देखा है !

दो रोटी के
चार टुकडे कर
बच्चों को पेट
भरते देखा है !

कहाँ दवा
दुआओं पर ही
बच्चों का बुखार
ठीक होते देखा है !

घाव नहीं
पर भूख से
बच्चों को
बिलखते देखा है !

बारिस से
भीग गया कमरा
दीवालों से सटकर
झपकियाँ लेते देखा है !

भूख बला थी
लोगों को जीते जी
भूख से
मरते देखा है !

और बचा था
कुछ देखन को
तो जिन्दों को
मुर्दों सा
जीते देखा है !

आज गरीबी को
सड़क पर
दम तोड़ते देखा है !!

Friday, January 28, 2011

बन्दर तो हूँ मैं, पर गांधी नहीं हूँ !!

सच तो ये है, ये गांधी का वतन है
सुनता नहीं कोई, पढ़ता नहीं कोई
गांधी की राहों पे चलता नहीं कोई
सत्य-अहिंसा का पाठ पढाता तो हूँ मैं
पर, सत्य-अहिंसा का पुजारी नहीं हूँ
बन्दर तो हूँ मैं, पर गांधी नहीं हूँ !

गांधी के तीनों बन्दर, बसते हैं जहन में
उन्हीं को देख-देख बढ़ता रहा हूँ
भाईचारे व सदभाव का जब उठता है मुद्दा
मुंह पे हाथ रख बैठा रहा हूँ
बन्दर तो हूँ मैं, पर गांधी नहीं हूँ !

हिन्दू-मुस्लिम समभाव, सदभाव
एकता की जहां होती है चर्चा
वहां कान पे हाथ होते हैं मेरे
वहां बैठ कुछ मैं सुनता नहीं हूँ
बन्दर तो हूँ मैं, पर गांधी नहीं हूँ !

जहां कत्ले-आम होते हैं हर पल
जलती हैं बस्ती, टूटते हैं घरौंदे
सच तो ये है, मैं होता वहीं हूँ
मगर आँखें मेरी कुछ देखती नहीं हैं
आँखों पे रख हाथ बैठा रहा हूँ
बन्दर तो हूँ मैं, पर गांधी नहीं हूँ !

है हिन्दोस्तां हमारा !

हिन्दू - मुसलमां
सोचो और समझो
मंदिर - मस्जिद
या शान्ति - सौहार्द्र
कब तक चलेंगे
ये मजहब के मुद्दे
कब हम कहेंगे
है हिन्दोस्तां हमारा !

भड़काऊ भाषण
झूठी मोहब्बत
वोटों की नीति
चुनावों के मुद्दे
मतलब की बातें
मतलब के नेता
कब हम कहेंगे
है हिन्दोस्तां हमारा !

बस्ती अमन की
कत्लों के मंजर
सन्नाटे से दिन
तूफानों सी रातें
कब तक चलेंगे
ये शोर - शराबे
कब तक जहन में
हम हिन्दू-मुसलमां
कब हम कहेंगे
है हिन्दोस्तां हमारा !

संभव नहीं, असंभव है !!

अनुशासन में जीवन जीना
संभव नहीं, असंभव है !

इमानदारी से काम करना
संभव नहीं, असंभव है !

सास - बहु में मीठी वाणी
संभव नहीं, असंभव है !


हंसते हंसते जीवन जीना
संभव नहीं, असंभव है !


सच्चाई का साथ निभाना
संभव नहीं, असंभव है !

प्रेम के वादे निभा पाना
संभव नहीं, असंभव है !

पाप-पुण्य का भेद समझना
संभव नहीं, असंभव है !


राजनीति में अनुशासन
संभव नहीं, असंभव है !


भ्रष्टाचार मिटा पाना अब
संभव नहीं, असंभव है !

गांधी जी की राह पकड़ना
संभव नहीं, असंभव है !

बढ़ते रहना चाहिए !

मंजिलें आँखों में हों
दिलों में हों
या ख़्वाबों में हों
एक एक पल
एक एक कदम
हमें उनकी ओर
बढ़ते रहना चाहिए !

होंगे साकार ख़्वाब
मिलेंगी मंजिलें
कदम दर कदम
राहों पर
हमें चलते रहना
उनकी ओर
बढ़ते रहना चाहिए !

मुश्किलें होंगी आसां
बढ़ेंगे कदम
मिलेंगी मंजिलें
हर कदम पर
नए जज्बे के संग
हमें उनकी ओर
बढ़ते रहना चाहिए !

चुपके से !

तुम मौन रहो
खामोश रहो
या खड़े रहो
खामोशी में
पर कुछ कह दो
चुपके से
हम सुन लेंगे
चुपके से ! 
बात वो जो तुम
कह पाए
भीड़ भरे सन्नाटे में
आज तुम कह दो
चुपके से
आँखों से, मुस्कानों से
हम सुन लेंगे
चुपके से
तुम कह तो दो कुछ
चुपके से !

नेता नेता खेल रहे हैं !!

नेताओं की महिमा देखो
खूब जमीं है महफ़िल देखो

धूम मची है नेताओं की
रंग जमा है नेताओं का

नेताओं की शान निराली
दौलत हुई है आन पर भारी

लटक रहे हैं पैर कबर में
दौड़ रहे हैं दिल्ली दिल्ली

क्या बूढा, क्या महिला देखो
दांव-पेंच हैं अजब निराले

बूढ़े-बाढ़े नतमस्तक हैं
युवराजों की शान निराली

क्या बूढ़े, क्या बच्चे देखो
लूट रहे हैं मिलकर सारे

स्कूलों - कालेजों में भी
शान हो रही नेताओं की

पढ़ना-लिखना भूल रहे हैं
नेतागिरी सीख रहे हैं

बच्चे भी अब डोल रहे हैं
नेता नेता खेल रहे हैं !!

उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो !!

मैं भ्रष्ट हूँ, भ्रष्टाचारी हूँ
जाओ, चले जाओ
तुम मेरा, क्या उखाड़ लोगे !
चले आये, डराने, डरता हूँ क्या !
गए, डराने, उनका क्या कर लिया
जो पहले सबकी मार मार कर
धनिया बो-और-काट कर चले गए !

चले आये मुंह उठाकर
नई-नवेली दुल्हन समझकर
आओ देखो, देखकर ही निकल लो
अगर ज्यादा तीन-पांच-तेरह की
तो मैं पांच-तीन-अठारह कर दूंगा !
फिर घर पे खटिया पर बैठ
करते रहना हिसाब-किताब !

समझे या नहीं समझे
चलो फूटो, फूटो, निकल लो
जो पटा सकते हो, पटा लेना
जो बन सके उखाड़ लेना !
मेरे साब, उनसे बड़े साब
और उनके भी साब
सब के सब खूब धनिया बो रहे हैं
क्या कभी उनका कुछ उखाड़ पाए !

चले आये मुंह उठाकर
मुझे सीधा-सादा समझकर
फिर भी करलो कोशिश
कुछ पटाने की, उखाड़ने की !
शायद कुछ मिल जाए
नहीं तो, चुप-चाप चले आओ
दंडवत हो, नतमस्तक हो जाओ
कुछ कुछ देता रहूंगा
तुम्हारा भी खर्च उठाता रहूंगा !

क्यों, क्या सोचते हो
है विचार दंडवत होने का
गुरु-चेला बनने का
कभी तुम गुरु, कभी हम गुरु
कभी हम चेला, कभी तुम चेला
या फिर, हेकड़ी में ही रहोगे ?
ठीक है, तो जाओ, चले जाओ
उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो !!

'खुदा' का दीदार !

उसने सजदे-पे-सजदा,
और
मैंने गुनाह-पे-गुनाह किये थे
क़यामत सा तूफां था,
मेरे
गुनाहों से कश्ती डगमगा
और
उसके सजदे से संभल रही थी
आज इम्तिहां की घड़ी थी
उसके सजदे और मेरे गुनाह
'खुदा' के सामने थे
तूफां था, कश्ती थी
किसे उठाना, किसे छोड़ना
जद्दो जहद की घड़ी थी
घंटों तूफां चलता रहा
मौत की घड़ी में भी
वो सलामती के लिए सजदा
और मैं जां के लिए
खुद को कोसता रहा
उसके सजदे को सुन ले 'खुदा'
यही सोच मेरे हाथ भी
खुद व् खुद सजदा करने लगे
'खुदा' ने रहमत बरती
तूफां ठहर गया
मौत की घड़ी में आज
मैं भी सजदा सीख गया
लम्बी उम्र में सीख पाया था
आज क्षण भर में तूफां मुझे
सिर्फ सजदा और सजदे का असर
वरन 'खुदा' का दीदार भी करा गया !

धधक रहा हूँ !

मौज हुई मौजों की यारा
किसान-मजदूर हुआ बेचारा
बस्ती भी बे-जान हो गई
शैतानों की शान हो गई
देख देख कर सोच रहा हूँ
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर अन्दर धधक रहा हूँ !

भरी सभा खामोश हो गई
दुस्शासन की मौज हो गई
अस्मत भी लाचार हो गई
लुट रही है, लूट रहे हैं
कब तक देखूं सोच रहा हूँ
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर अन्दर धधक रहा हूँ !

एक
भयानक तूफ़ान चल रहा
कैसे जीवन गुजर रहा है
कब सुबह - कब शाम हो रही
पता नहीं, क्या बेचैनी है
और क्यों पसरा सन्नाटा है
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर - अन्दर धधक रहा हूँ !

बाहर देखो सब चोर हुए हैं
मौज - मजे में चूर हुए हैं
नष्ट हो गई आन देश की
सत्ता भी अब भ्रष्ट हो गई
ये पीड़ा भी सता रही है
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर - अन्दर धधक रहा हूँ !

कतरा - कतरा व्याकुल है
कब निकलूं ये सोच रहा है
कब तक मैं जज्बातों को
शब्दों के अल्फाजों से
बाहर शोले पटक रहा हूँ
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर - अन्दर धधक रहा हूँ !!

ये कैसा हिन्दुस्तान है !!

देश में विकास के नाम पे
कौन-कौन से खेल हो रहे हैं
देश कंगाल, और नेता-अफसर
मालामाल हो रहे हैं
अरे कोई तो बताये
ये कैसा हिन्दुस्तान है !

गरीब, गरीब हो रहे हैं
और अमीर, अमीर
विकास योजनाओं के नाम पे
भ्रष्टाचार सरेआम हो रहे हैं
अरे कोई तो बताये
ये कैसा हिन्दुस्तान है !

लूट लूट के लुटेरे
मालामाल हो रहे हैं
लुट लुट के अस्मित
तार तार हो रही है
अरे कोई तो बताये
ये कैसा हिन्दुस्तान है !

नोटों से खरीद के वोट
नेता चुनाव जीत गए हैं
फिर गरीबों के सीने पे
सरेआम मूंग-पे-मूंग दल रहे हैं
अरे कोई तो बताये
ये कैसा हिन्दुस्तान है !

कल जिन्हें साईकिल
खरीदने के लाले थे
वे आज साईकिल वालों को
स्कार्पिओ से रौन्धते चल रहे हैं
अरे कोई तो बताये
ये कैसा हिन्दुस्तान है !

कल जिन्हें बस का सफ़र
मुश्किल लगता था
वे आज हवाई जहाज से नीचे
पैर नहीं धर रहे हैं
अरे कोई तो बताये
ये कैसा हिन्दुस्तान है !

शराबी, कबाबी, कबाड़ी,
चोर-उचक्के, गुंडे-मवाली,
भ्रष्टाचारी, नाकारे-निकम्मे
सारे-के-सारे बंदर-बांट कर रहे हैं
अरे कोई तो बताये
ये कैसा हिन्दुस्तान है !!

हमारी जान ले लोगे !!

हम भ्रष्ट हैं, भ्रष्ट रहेंगे
हमें भ्रष्ट ही रहने दो
क्यों इमानदार बनाने पे तुले हो
क्या हमारा जीना तुम्हें
अच्छा नहीं लग रहा
आखिर हमने तुम्हारा बिगाड़ा क्या है !

ऐसा क्या कर दिया
जो तुम हमारे पीछे ही पड़ गए
तुम्हारे दो-चार पैसे क्या खा लिए
रोटी का टुकड़ा क्या खा लिया
अब हमें जाने भी दो
तुम्हारी जान तो नहीं ले ली !

और ना ही तुम्हारा
चैन हराम किया है
अब थोड़ा-बहुत तुम्हारे हिस्से का
गुप-चुप ढंग से क्या खा-पी लिया
तो क्या तुम अब
हमारी जान ही ले लोगे !

तुम तो दयालु-कृपालु हो
माफ़ कर देने से
तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा
ज्यादा-से-ज्यादा यह ही होगा
तुम पिछड़े हो, पिछड़े ही रह जाओगे
तुम्हारा कुछ जाने वाला तो है नहीं !

पर तुम्हारे माफ़ कर देने से
हमें एक नया जीवन मिल जाएगा
हम कसम खाते हैं, पैर छूते हैं
अब दोबारा भ्रष्टाचार नहीं करेंगे
जो कुछ कमाया-धरा है
उससे ही हम और हमारी पुस्तें ... !!!

लालकिला और ताज बेच दें !!

मान, ईमान, स्वाभिमान
तो हम कब का बेच चुके हैं !

चलो बेच दें, बढ़ो बेच देंचलो आज कुछ नया बेच दें !

जिस्म-आबरू बेच चुके हैं,
गोली-बारूद भी बेच रहे हैं
बार्डर की भी डील चल रही
कुछ--कुछ तो आज बेच दें !

क्या अपना, क्या तुपना देखें
चलो लालकिला और ताज बेच दें !!!

नेता होना गुनाह !

बड़े नेताओं के लिए नारे लगाए
बैनर पोस्टर दीवारों पे चिपकाए
चौक-चौराहों पे नारेबाजी की
धरना, प्रदर्शन, आन्दोलन में
कभी आगे, तो कभी पिछलग्गू बने रहे
माल लाने से, परोसने तक पीछे नहीं हटे !

और तो और, क्या क्या नहीं किया
जूते उठाने से भी कभी पीछे नहीं हटे
अब क्या बताएं कितनी तीन-पांच-तेरह
और पांच-तीन-अठारह की है
तब जाके, ले-दे के, बड़ी मुश्किल से
हम यहाँ तक पहुंचे हैं, ..... अब भला !

थोड़ी
तिकड़मबाजी क्या कर ली
दो-चार गाड़ियां क्या बना ली
बंगला बैंक बैलेंस क्या बना लिया
तो क्या गुनाह कर लिया है
बताओ, बताओ, हाँ तुम ही बताओ
क्या नेता होना गुनाह हो गया है !!!

गूंगे-बहरे-अंधे !!

तीन खड़े हैं, तीन बढे हैं
तीन कर रहे मौज हैं यारा !

कौन कह रहा, कौन सुन रहा
एक गूंगा, एक बहरा है !

गूंगा भी खामोश खडा है
और बहरा भी ताक रहा है !

और एक खडा मौन हुआ है
वो तो बिलकुल अंधा है !

गूंगे-बहरों-अंधों ने मिलकर
देश का बेडागर्क किया है !

कुछ तो जय जय कार हो रहे
और कुछ जय जय कार कर रहे !

देश के तीनों बन्दर देखो
मौज-मजे में चूर हो रहे !

बहरा हाथ में लाठी लेकर
जनता को फटकार रहा है !

और गूंगे की मौज हुई है
वो सत्ता में चूर हुआ है !

अब अंधों की क्या बोलें हम
गूंगे-बहरों को खूब मजे से हांक रहे हैं !

गूंगे-बहरे-अंधे मिलकर
देश का बेडागर्क कर रहे !

है कोई जो अब इन तीनों को
जंजीरों में बाँध सके, वरना !

वरना अब क्या बोलें हम
लोकतंत्र है, लोकतंत्र है !!!

राह !

क्या मैं हूँ , क्या नहीं
अब कोई मुझे समझाए !

किस पथ पर, किन राहों पर
चलना है राह दिखाए !

उंच-नीच की डगर पकड़ ली
जीवन डग-मग जाए !

क्या जीवन, क्या लीला है
अब कोई मुझे समझाए !

हार-जीत का खेल हुआ, क्या हारूं
क्या जीतूं, ये समझ आये !

कालचक्र और समयचक्र
दोनों मिलकर खूब सताएं !

अब क्या बोलूँ, अब क्या सोचूँ
जब कदम मेरे बढ़ आए !

कठिन डगर है, जीवन है
अब राह कोई दिखलाए !!

मैं नेता हूँ !

मैं नेता हूँ, जीता हुआ नेता
अब तुम मेरा क्या कर लोगे !

क्या कर लोगे, बोलो, बताओ
भूल गए क्या ! दारू - मुर्गा !

मैंने तुमको खरीदा था
वोट के खातिर, नोट देकर !

तुमको गले से लगाया था
वरना क्या औकात थी तुम्हारी !

दर दर यूँ ही भटकते फिरते थे
भूल गए क्या ! औकात तुम !
मैंने तुम्हें, मान क्या दे दिया
क्या अब गोद में ही बैठोगे !

याद करो, कुछ तो शर्म करो
दारु-नोट-मुर्गा में बिकते थे !

झंडी लेकर चौक-चौराहे में
जय जयकार के नारे लगाते थे !

आओ, चले आओ, मत शर्माओ
बढ़ो, बढ़ो, पैर पकड़ आशीर्वाद ले लो !

वोट खरीदने, चुनाव जीतने के
सारे हुनर सीख गया हूँ !
अरे हां भई, चुनाव जीत गया हूं
नेता बन गया हूं, मैं अब तुम्हारा !!!

तुमको क्या !

हम सरकार हैं
हमारी सरकार है
हमें मतलब हैपत्थरों पे शिलान्यास से
काम पूर्ण हो या हो
हमको क्या !

पहली क्या ! दूसरी
पंचवर्षीय चल रही है
शिलन्यासी पत्थरों पे
सुनहरे अक्षरों से
हमारी गाथा छप रही है !
तुमको क्या !

लोकार्पण के लिए
औधोगिक संस्थान
लेखकों की किताबें
मेले-मंदिर-शोरूम जो हैं
हम लोकार्पण करते रहेंगे
तुमको क्या !!!

भ्रष्टाचार ...... हाथ लगा दें !

देखो-देखो मौज हो रही
लुटेरों की फ़ौज हो रही
लूट-लूट के गर्व कर रहे
अकड़ रहे हैं, जकड रहे हैं
लोकतंत्र को चित्त किये हैं
और सीना ताने खड़े हुए हैं !

शान बढ़ रही, उनकी देखो
मान घट रहा, देश का देखो
आन की बारी, अब अपनी है
कब तक हम चुप बैठेंगे
मिलकर हम सब जोर लगा दें
चलो आज हम हाथ लगा दें !

क्या अपना, क्या तुपना सोचें
देश की हालत को हम देखें
आज नहीं, फिर कब जागेंगे
देश लुट रहा, मान लुट रहा
आखिर है ये देश हमारा
चलो आज हम हाथ लगा दें !

बढ़ो आज हम जोर लगा दें
मिलकर एक नई राह दिखा दें
भ्रष्टाचार से डगमग करती
देश की अपनी छोटी नैय्या
को मिल कर, हम पार लगा दें
चलो आज हम हाथ लगा दें !!!

कडकडाती ठण्ड : प्रेम कहानी !

कल रात बेचैनी थी
नींद खुल गई
बिस्तर पर पड़े पड़े
करवट बदलता रहा
दस से पंद्रह मिनट
फिर उठकर बैठ गया !

थोड़ी देर बाद ही
खिड़की के पास
खडा हो ताजी हवा
के झोंके लेते लेते
नीचे सड़क के पार
नजर जा टिकी !

एक लड़की खडी थी
फ्राक पहने हुए
ठंड में सिकुड़ते हुए
जाने क्यूं
शायद इंतज़ार में
सवाल ! पर किसके !

अन्दर नजर दौड़ाई
घड़ी पर देखा
सुबह के साढ़े चार
बज रहे थे
फिर मेरी नजर
जा टिकी लड़की पर !

मैं कुछ सोचता
तब तक वहां एक
लड़का पहुंचा
दोनों कुछ पल बातें
गुपचुप करते रहे
जाने क्या !

लडके ने लड़की को
गुलाब फूल दिया
दोनों कुछ बुद-बुदाये
और चले गए, मैंने सोचा
कडकडाती ठण्ड ! क्या है
शायद ! प्रेम कहानी !!!

यौवन की दहलीज !

कब तक मैं बैठी रहूँ द्वारे
विवाह पर्व की बाठ जुहारे
उम्र हो गई सोलह मेरी
बिहाय चली गईं सखियाँ मेरी !

अब रातन में नींद आये
करवट बदल बदल कट जाए
अब हांथन भी सम्हल पाएं
कभी इधर, कभी उधर को जाएँ !

यौवन की दहलीज पे मैं हूँ
अंग अंग मेरे फड़कत जाएँ
देह तपन में जल जल जाए
अंग अंग रस हैं छलकाएं !

कल सखिया संग लिपट गई थी
सिमट बाहों में उसके गई थी
अंग अंग सब सिहर गए थे
खिल गए थे, छलक गए थे !

पिया मिलन की आस जगी है
मन में बसे कुछ ख़्वाब जगे हैं
मन-यौवन सब सिहर रहे हैं
विवाह पर्व की बाठ जुहारे !

क्या फर्क पड़ता है !

भईय्या आपने बैंक लूट लिया
एफ.आई.आर.हो जायेगी
छोड़ ना जाने दे, सब अपने हैं
क्या फर्क पड़ता है !

भईय्या चौक पे मर्डर कर दिया
पुलिस पकड़ कर ले जायेगी
छोड़ ना जाने दे, सब अपने हैं
क्या फर्क पड़ता है !

भईय्या आपने इज्जत लूट ली
चलो यहाँ से भाग चलते हैं
छोड़ ना जाने दे, सब अपने हैं
क्या फर्क पड़ता है !

भईय्या नेताजी को टपका दिया
चलो अब तो भाग चलते हैं
छोड़ ना जाने दे, सब अपने हैं
क्या फर्क पड़ता है !

भईय्या कप्तान को चांटा जड़ दिया
अब तो खैर नहीं, चलो निकल लें
छोड़ ना जाने दे, सब अपने हैं
क्या फर्क पड़ता है !

भईय्या कभी तो कुछ फर्क
नहीं, कभी नहीं, और पडेगा
क्यों, कैसे भईय्या
लोकतंत्र है सरकार हमारी है !

जिज्ञासा

सच ! हाँ जानती हूँ, तुम मुझे
निर्वस्त्र देखना चाहते हो
घंटों निहारना चाहते हो
सिर से पैरों तक
फिर पैरों से सिर तक
आगे से, पीछे से
अकेले में, रौशनी में
तुम चाहते हो
देखना मुझे निर्वस्त्र
अपनी मद भरी आँखों से !

सच ! तुम कितने लालायित हो
मैंने एक-दो बार भांपा है
तुम्हारी नजरें स्थिर बन
ठहर सी जाती हैं
कभी कभी, मुझ पर
कपडे बदलते समय
और तो और
एक-दो बार तुमने
मुझे नहाते समय देखने का
असफल प्रयास भी किया
किन्तु, तुम सहम गए !

तुम्हारी सालों की लालसा
चाहती हूँ, कर दूं पूरी
पर क्या करूं
शर्म के कारण
सच ! चाहकर भी सहम जाती हूँ
कल तो मैंने
मन ही बना लिया था
पर चाहते चाहते
शर्म उतर आई मन में
रुक गई, ठहर गई
नहीं तो कल रात
तुम्हारी जिज्ञासा
हो गई होती पूरी !

सच ! अब मुझसे भी
तुम्हारी लालसा
व्याकुलता, देखी नहीं जाती
देखें, कब तक, शर्म
रोक सकती है मुझको
या फिर, किसी दिन
शर्माते, लजाते ही
अपनी आँखों को, मूँद कर
मैं तुमसे, चुपके से, कह दूंगी
लो, कर लो पूर्ण
चुपके से, धीरे से
अपनी जिज्ञासा पूरी !!

न जाने, कौन जाने, कब तलक, चलना है मुझको ...

जाने, कौन जाने
कब तलक
चलना है मुझको
सफ़र है, रास्ते हैं
और मेरे पग
इरादों संग
निरंतर बढ़ रहे हैं !

मिलेंगी मंजिलें
रस्ते बड़े हैं
थकेंगे कभी
ये पग मेरे हैं
मेरे जज्बे, हौसले
पगों
संग
होड़ में आगे खड़े हैं !

सोचो तुम
थक कर, कहीं
मैं ठहर जाऊं
ये पग
जज्बे
इरादे
हौसले
मैंने गढ़े हैं !

चलो चलते रहो
बढ़ते रहो तुम
संग संग मेरे
पीछे रास्ते मैंने गढ़े हैं
सफ़र थोड़ा बचा है
चलो चलते रहें
सुकूं की सांस, लेंगे हम
पहुँच कर, मंजिलों पर !!

धन्ना सेठ

धन्ना सेठ
गाँव का, सबसे अमीर
जानते थे सब उसको
दौलतें पीठ पे बांध चलता
सिरहाने रख सोता था
चिलचिलाती धूप में,
सड़क पर पडा है, मर गया !

काश, कोई परिजन
हैं बहुत, पर कोई नहीं आया
सब तंग थे, शायद, उससे
पता नहीं, क्यों
बहुत लालची था
दौलत को ही समझता, अपना !

पर, बेचारा, आज सड़क पे
पडा है, मरा हुआ
एक गठरी में दौलतें
अभी भी, बंधी हुई हैं
पीठ पे उसके, पर कोई
छू भी नहीं रहा
शायद सब डरे हुए हैं !

हाँ, कुछेक को
दिख भी रही है उसकी रूह
वहीं, सड़क पर , किनारे
गठरी को निहारती
हाथ बढ़ाकर उठाने की
लालसा, अभी भी है !

पर, क्या करे
गठरी उठती नहीं
शायद, बोझ ज्यादा है
गठरी का, दौलत का
बेचारा मर गया
चिलचिलाती धूप में
धन्ना सेठ !!

जादूगरनी

सच ! तुम हसीन
बेहद ख़ूबसूरत हो
जब तुम्हें देखता हूँ
तो सिर्फ देखते रहता हूँ
तुम्हारी आँखें
उफ्फ़ ! क्या कहूं
अजीब-सी कशिश
अजीब-सा जादू है
जब भी मुझे
देखती हैं ! उफ्फ़
अपना बना लेती हैं !

हाँ ! याद है मुझे
जब तुमने मुझे
पहली बार देखा था
बस ! उसी पल
तुमने मुझे, चाहकर भी
अपना बना लिया था
वो दिन या आज का दिन
मैं तुम्हारी आँखों के
इर्द-गिर्द ही हूँ
सच ! क्या तुम्हें पता है
कि तुम एक जादूगरनी हो !

शायद ! नहीं
ठीक है, अच्छा ही है
तुम अंजान हो
तुम्हें यह ही यकीं है
कि मैं तुम्हें
बे-इम्तिहां चाहता हूँ
सच ! चाहता तो हूँ
पर अनोखा सच तो
तुम्हारी आँखों का जादू
खैर ! जाने दो
मुझे तो सिर्फ इतना पता है
कि मैं तुम्हें बेहद
बे-इम्तिहां चाहता हूँ !!

Monday, January 24, 2011

हर किसी का अपना जहां, अपना-अपना आसमां है !

अंधेरे उजालों से कहीं बेहतर हैं
वहाँ हैं तो सभी, पर दिखते नहीं हैं !
...
भीड़ में चैन नहीं मिलता
सुकून की चाह में तनहा हूँ !
...
क्यों खो रहे हो, रातों का सुकून
हाय-तौबा जिंदगी भर अच्छी नहीं यारा !
...
‘उदय’ कहता है , जख्मों को छिपा कर रखना यारो
जो भी देखेगा, कुरेद के चला जाएगा !
...
चलो अच्छा हुआ, जो तुम मेरे दर पे नहीं आए
तुम झुकते नहीं, और मै चौखटें ऊंची कर नही पाता !
...
सुकूं से बैठकर, क्या गुल खिला लेंगे
चलो दो-चार हाँथ, आजमा लें हम ।
...
अगर है तो, बहुत कुछ है
नहीं तो, कुछ नहीं यारा ।
...
अब नहीं लिखता किताबें, तेरे इरादे भाँप कर
है कहाँ फुर्सत तुझे, पुस्तक उठा के देख ले ।
...
अब भी क्यों रोते हो मुफलिसी का रोना
हम जानते हैं, दौलतें चैन से तुम्हें सोने नहीं देतीं।
...
चलो आए, किसी के काम तो आए
किसी दिन फिर, किसी के काम आएंगे ।
...
फूल समझ हमने, उन्हें छुआ तक नहीं
वे काँटे समझ हमको, सहम कर गुजर गये।
...
चलो उमड जाएँ, बादलों की तरह
सूखी है जमीं, कहीं तो बारिस होगी ।
...
‘रब’ भी मेरी खताएँ माफ कर देता
गर मैने झुककर सजदा किया होता।
...
मेरी रातें भी दिन जैसी ही हैं
फर्क है तो , तनिक अंधेरा है ।
...
कैसे बना दूँ गैर तुझे, एक शुक्रिया अदा कर
तेरा ही शुक्रिया है, हमें जीना सिखा दिया।
...
तेरे हम-कदमों से, मंजिलें आसां हैं
तेरे साथ होने से, जिंदगी खुशनुमा है।
...
‘उदय’ तेरी ही दोस्ती है, जो हमें जिंदा रखे है
मरने को, तो हम, कब के मर चुके हैं ।
...
वक्त ने न जाने क्यूं, बदल दिया हमको
वरना हम थे ऎसे, कि खुद के भी न थे ।
...
‘उदय’ कहता है मत पूछो, क्या आलम है बस्ती का
हर किसी का अपना जहां, अपना-अपना आसमां है।
...
कभी राहें नहीं मिलतीं, कभी मंजिल नहीं मिलती
ये जिंदगी के सफर हैं, कभी हमसफर नहीं मिलते ।
...
तुम्हे हम चाहते हैं, न जाने क्यों ये चाहत है
पर हमको है खबर, मिटटी पे पानी की इबारत है।
...
जब चंद लम्हों में, मिट जाए सदियों की थकान
फिर रात के ठहरने का, इंतजार किसको है।
...
मोहब्बतें हैं या रंजिशें हैं, कोई समझाये हमें
जब भी उठती है नजर, अंदाज कातिलाना है ।
...
जमीं से आसमां तक, नजारे-ही-नजारे हैं
तुम देखो तो क्या देखो, हम देखें तो क्या देखें।
...
मंजिलें हैं जुदा-जुदा, तो क्या हुआ
कम-से-कम ‘दुआ-सलाम’ तो करते चलो ।
...
मिले हैं राह में, सुकूं से देख लो हमको
‘उदय’ जाने, कहाँ लिक्खीं हैं फिर मुलाकातें।
...
अब फिजाएं भी कह रही हैं उड निकल
क्यूँ खडा खामोश है, तू जमीं को देखकर।