Saturday, January 29, 2011

मंजिल की ओर !

एक मन था
जो बेचैन हुआ था
क्यों था
ये पता नहीं था
कब तक रहती
पीड़ा मन में
और कब तक रहता
संशय मन में
कब तक मैं समझाता मन को
और कब तक
मन समझाता मुझको

कब तक रहता सन्नाटा
और कब तक रहती खामोशी
मौन टूट पडा था मेरा
हां कहकर
फिर मौन हुआ था
तब तक मन तो
झूम उठा था
एक नई सुबह
नई भोर हुई थी
नई राह पर चल पडा था
मन आगे
और पीछे मैं था
एक नई मंजिल की ओर !

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