Saturday, April 30, 2011

चाहत !

तुम दौड़कर
सिमट
आईं
बांहों
में
मैं खामोश
खुद को, और तुम्हें

सहेजता

तुम निढाल हुईं
बिखरने
लगीं
रेत
सी
समेटना, संभालना पडा
तुम्हें
, बांहों में
कैसे बिखरने देता
सच, चाहत जो है !!

1 comment:

ANJAAN said...

Sayad, yahi sachi chaht h.......
बहुत खूब
www.anjaan45.blogspot.com