Wednesday, April 6, 2011

पतझड़ !

सूखे पत्ते,
पत्तों
का झड़ना
एक के बाद एक,
पत्ते
साख से
टूट टूट के, जमीं पे,
झड
रहे होते हैं
ये पतझड़ भी,
देखते ही देखते,
दरख़्त, ठूंठ बन
सूखा सूखा सा,
सामने
होता है !
ठीक वैसे ही,
जैसे एक एक दिन
गुजरने पर, बूढा
जीता
जागता इंसान
मरा मरा सा, बुझा बुझा सा
दिखाई देता है, पर
होती है जिन्दगी उसमें
उस दरख़्त की तरह
जो पतझड़ निकलने पर
पुन: हरा-भरा हो जाता है !!

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