Wednesday, April 20, 2011

ख़्वाब !

एक दिन, बैठे बैठे
ख़्वाब रचे थे, मैंने भी
सच ! उन ख़्वाबों में
सरल, सहज, सुलभ
संसार, बसाया था मैंने
भाईचारा, प्रेम, मिलन
के सारे बंधन, बांधे थे
जात, धर्म, रंग, रूप
ऊंच-नींच, नर-नारी में
भेद, नहीं रख छोड़े थे
एक दिन, बैठे बैठे
ख़्वाब रचे थे, मैंने भी !!

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