Thursday, June 16, 2011

असहाय लोकतंत्र !

अब कोई, मुझे, कुछ
समझता ही नहीं है
कोई यहां से, तो कोई वहां से
मेरी भावनाओं ... आदर्शों को
तोड़ रहा है ... मरोड़ रहा है
और तो और
कुछेक ने तो मुझे जेब में रख
घूमना - फिरना ... शुरू कर दिया है
क्या करूं ... क्या कहूं ... किससे कहूं
ये तो कुछ भी नहीं
कुछेक धुरंधरों ने तो मुझे
खिलौना समझ, बच्चों को
खेलने ... कूदने के लिए ...
और वे, खूब मजे से
चुनाव - चुनाव ... खेल रहे हैं
सच ! बहुत शर्मसार हुआ
पर ... अब ... सहा नहीं जाता
भ्रष्टाचार ने तो मेरा
जीना ही दुभर कर दिया है
घोंट दो ... मेरा गला घोंट दो !
सच ! मैं अमर हूँ
पर असहाय लोकतंत्र हूँ !!

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