Saturday, November 5, 2011

उधेड़बुन

क्यूँ मियाँ, किस उधेड़बुन में हो
क्या कर रहे हो
कुछ खबर है भी या नहीं !

कहीं जिंदगी को -
सांप-सीढ़ी का खेल तो नहीं समझ रहे हो
और
बेधड़क, कुछ का कुछ करे जा रहे हो !

सुबह सोचते कुछ हो
और शाम होते होते, कुछ और कर ले रहे हो
क्या माजरा है ?
क्या समझाओगे हमें ?

क्या यूँ ही, जिंदगी की फटेहाली चलते रहेगी
या फिर
कुछ, कर गुजरने का भी इरादा है !

बोलो, बताओ, कुछ तो मुंह खोलो मियाँ
कब तक, यूँ ही गुमसुम से बैठे रहोगे
और, मन ही मन, ख्याली पुलाव पकाते रहोगे !

धन्य हो प्रभु, आप सचमुच धन्य हो
आपकी लीला अपरम्पार है
खुद तो डूबोगे सनम -
संग संग हमें भी बहा ले जाओगे !

अब उठ जाओ, और कर लो प्रण
कि -
आज से, अभी से, करोगे वही -
जो सुबह सुबह घर से सोच के निकलोगे
वरना, जय राम जी की !!

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